क्षीराम्बुराशिसदृशाशु यदीयरूपम्‌,
आराध्य सिद्धिमुपयान्ति तपोधनास्त्वम् ।
हहो ! स्वहसहरिविष्टर-सन्निविष्टम,
अर्हन्तमक्षरमिम स्मर कर्ममुक्त्यै ॥29॥
अन्वयार्थ : क्षीरसागर के समान किरण (आभा) वाले ऐसे परमात्मा के निर्मल स्वरूप की आराधना करके तपस्विगण मोक्ष को प्राप्त करते हैं । हे प्रभाकर भट्ट ! तुम (भी) बीजाक्षरों से परिपूर्ण बारह दलों के बीच में निज शुद्धात्मारूपी सिंहासन पर बैठकर दु:खों और कर्मों की निर्मुक्ति के निमित्त 'अर्हद' नामवाले अक्षर का स्मरण करो ।