
यं निष्कलं सकलमक्षयकेवलं वा,
सन्त स्तुवन्ति सततं समभावभाज ।
वाच्यस्य तस्य वरवाचक-मंत्रयुक्त,
हे पान्थ ! शाश्वतपुरीं विश निर्विशक ॥30॥
अन्वयार्थ : सुख-दु ख, जीवन-मरण आदि में समभाव भाजन है, जो ऐसे सत्पुरुष निरन्तर कलातीत और कला-समन्वित, नित्य और असहाय जिस आत्मतत्त्व की स्तुति करते हैं, वाच्यरूप उस श्रेष्ठ तत्त्व के उत्तम वाचकमंत्र से युक्त होकर, हे मोक्षपुरी के पथ के पथिक ! शंकारहित होकर मोक्षपुरी में प्रवेश करो ।