
भ्रातस्तमस्ततिरिय सरतीह तावत्,
तावच्च रे ! चरप्ति ही रजसि त्वमेव ।
यावत् स्वशर्म-निकरामृतवारि वर्षन्,
अर्हन्-हिमांशुरुदय न करोति तेऽन्त ॥32॥
अन्वयार्थ : तुम्हारे मनरूपी आकाश के मध्य में जब तक निजानन्द की सन्तान रूपी अमृत-जल की वर्षा करता हुआ वाच्य-वाचक-रूप सहज अर्हद देव रूपी निर्मल बालचन्द्रमा प्रादुर्भूत नही होता है, तब तक हे भाई ! यह अज्ञान प्रवर्तित रहता है यहाँ, और तभी तक हे भाई ! तुम ही विवेकहीनता की धूल में, कष्ट है, रहोगे ।