
अस्मिन्ननाहतबिले विलयेन मुक्ते,
नित्ये निरामयपदे स्वमनो निधाय ।
त्वं याहि योग-शयनीयतल सुखाय,
श्रान्तोऽसि चेत् भवपथभ्रमणेन गाढम् ॥35॥
अन्वयार्थ : [चेत्] यदि [भवपथभ्रमणेन] जन्मादि के मार्ग में होने वाले परिभ्रमण से [गाढम्] अत्यधिक [श्रान्तअसि] थके हुए हो , [विलयेन मुक्ते] विनाशरहित, [नित्ये] नित्य, [निरामयपदै] निरोगपद, [अस्मिन् अनाहतबिले] इस 'अनाहत' रन्ध्रप्रदेश में, [स्वमनो निधाय] अपने मन को लगाकर, [त्वम्] तुम [सुखाय] सुख-प्राप्ति-हेतु [योगशयनीयतलम्] योग रूप शय्या पर [याहि] चले जाओ ।