
लोकालोकविलोकननैकनयनं यद्वाङ्मयं तस्य या,
मूलं बालमृणालनालसदृशीम् मात्रां सदा तां सतीम् ।
स्मारस्मारममन्द ! मन्दमनसा, स्फारप्रभाभास्वराम्,
संसारार्णव-पारमेहि तरसा किं त्वं वृथा ताम्यसि ॥36॥
अन्वयार्थ : लोकालोक के देखने के लिए जो एकमात्र नेत्र है , जो वाङ्मय है, उसका जो मूलभूत उस विद्यमान बाल कमलनाल के समान मनोहारी प्रभा से प्रकाशमान मात्रा को सदैव अचल मन से बारम्बार स्मरण करते हुए हे बुद्धिमान प्राणी ! शीघ्र भवसागर के पार चले जाओ । तुम व्यर्थ ही क्यो खिन्न हो रहे हो ?