
जन्माम्बोधि-निपातभीतमनसां, शश्वत्सुखं वाञ्छताम्,
धर्मध्यानमवादि साक्षरमिव, किञ्चित् कथंचिन् मया ।
सूक्ष्मं किंचिदतस्तदेव विधिना, सालम्बनं कथ्यते,
भ्रू भंगादिकदेशसगतमृते, देशै परै किञ्चन ॥37॥
अन्वयार्थ : संसाररूपी सागर में पड़े होने से भयभीत मनवाले, अविनाशी सुख की इच्छा करते हैं, उनके लिए कुछ किसी प्रकार से अक्षरज्ञान युक्त यह धर्मध्यान मेरे द्वारा कहा गया है । उसी कुछ सूक्ष्म बात को विधिपूर्वक भ्रकुटि आदि प्रदेश के बिना उत्कृष्ट प्रदेशों द्वारा धर्म-ध्यान कुछ कहा जा रहा है।