
सरलविमलनाली-द्वारमूले मनस्त्वम्,
कुरु सरति यतोऽय ब्रह्मरन्ध्रेण वायु ।
परिहृतपरनाली - युग्ममार्गप्रयाण,
बलितमलवलौध केवलज्ञानहेतु ॥40॥
अन्वयार्थ : तुम ऋजु एवं निर्मल नाडी का द्वार जहाँ है, उस प्रदेश में, मन को करो, ताकि सुषुम्ना नामक दसवी नाडी के द्वार से यह वायु अन्य दो नाडियों का मार्ग छोडता हुआ प्रयाण करे। समस्त दुरित मल को नाश करने वाला केवलज्ञान का साधन होता है ।