+ पवन-जय के विधान का निरूपण करने के लिए मूल अनाहत -
सरलविमलनाली-द्वारमूले मनस्त्वम्,
कुरु सरति यतोऽय ब्रह्मरन्ध्रेण वायु ।
परिहृतपरनाली - युग्ममार्गप्रयाण,
बलितमलवलौध केवलज्ञानहेतु ॥40॥
अन्वयार्थ : (हे जीव !) तुम ऋजु एवं निर्मल नाडी (सुषुम्ना) का द्वार जहाँ है, उस प्रदेश में, मन को (स्थिर) करो, ताकि सुषुम्ना नामक दसवी नाडी के द्वार से (बढती हुई) यह वायु अन्य दो नाडियों (इडा व पिंगला) का मार्ग छोडता हुआ प्रयाण करे। (ऐसा होने पर यह वायु) समस्त दुरित मल को नाश करने वाला (तथा) केवलज्ञान का साधन होता है ।