
रस-रुधिर-पलास्थि-स्नायु-शुक्र-प्रमेद-
प्रचुरतरसमीर-श्लेष्म-पित्तादिपूर्णे
तन-नरक-कुटीरे वासतस्ते घृणा चेत्,
हृदयकमलगर्भे चिन्तय स्व परोऽसि ॥42॥
अन्वयार्थ : -- खून-माँस-हड्डी-नसें/नाडियां-वीर्य-चर्बी एवं अत्यधिक वायुविकार-कफ-पित्त इत्यादि से परिपूर्ण शरीररूपी नरक-भवन में रहने से यदि तुम्हे घृणा है , हृदय-कमल के अन्दर अपने को 'तुम अत्यन्त उत्कृष्ट हो' चिंतन करो ।