अजममरममेयं ज्ञानदृग्वीर्यशर्मा-
स्पदमविपदमिष्टं स्वस्वरूपं यदि त्वम्‌ ।
कुरु हृदयनभोऽन्त मानसं निर्विकल्पम्,
वपुषि विषमरोगे नश्वरे मा रमस्‍व ॥43॥
अन्वयार्थ : अजन्मा / अनादि, अनन्त, (क्षयोपशम ज्ञान की सीमा में आबद्ध न होने से) अमेय, ज्ञान-दर्शन-बल और सुख का स्थान, विपदा रहित, इष्ट, (ऐसे) अपने स्वरूप को यदि तुम (चाहते हो) तो, हृदयाकाश के मध्य मन / उपयोग को विकल्प रहित करो । (तथा) अत्यन्त भयंकर रोगों वाले (इस) नश्वर शरीर में रमण मत करो ।