
अपरमपि विधानं धामकासाधिकानाम्,
धुतविधुरविधानं धर्मतो लभ्यते यत् ।
तदहमिह समन्तादहसां मुक्तये ते,
हितपथ-पथिकेदं क्षिप्रमावेदयामि ॥44॥
अन्वयार्थ : धाम की अत्यधिक अभिलाषा वाले साधकों के लिए एक अन्य विधि-विधान को जो कि तुच्छ विधि-विधानों को प्रकम्पित करने वाला है, धर्मानुष्ठान द्वारा उपलब्ध होता है उसे भी मैं हे आत्म-हित-साधना के पथिक! तुम्हारे कर्मों की शीघ्र व समग्र रूप से मुक्ति के लिए प्रस्तुत संदर्भ में यह कथन करता हूँ ।