
श्रवणयुगलमुलाकाशमासाद्य सद्य,
स्वपिहि पिहितमुक्तस्वान्तसद्-द्वारसारे ।
विलसदमलयोगानल्पतल्पे ततस्त्वम्,
स्फुरितसकलतत्त्वं श्रोष्यसि स्वस्य नादम् ॥45॥
अन्वयार्थ : करणेंद्रिय-युगल के मूल आकाश को प्राप्त करके शीघ्र ही आवृत होते हुए भी अनावृत निज अन्त:करण के सारभूत द्वार में सुशोभित निर्मल योगरूपी विस्तीर्ण शय्या पर विश्राम करो उससे तुम तत्त्वों को स्फुरित करने वाले अपने नाद को सुन सकोगे ।