+ अरिहंतादिक पर-तत्त्व की आराधना का फल -
तेसिं अक्खर-रूवं भविय-मणुस्साण झायमाणाणं ।
बज्झइ पुण्णं बहुसो परंपराए हवे मोक्खो ॥4॥
अरहंतादिक अच्छर जेह, अरथ सहित ध्यावै धरि नेह ।
विविध प्रकार पुन्य उपजाय, परंपराय होय सिवराय ॥4॥
अन्वयार्थ : [तेसि] उन पंच परमेष्ठियों के [अक्खरख्व] वाचक अक्षररूप मंत्रों को [झायमाणाणं] ध्यान करनेवाले [भवियमणुस्साण] भव्यजनों के [बहुसो] बहुत-सा [पुण्णं] पुण्य [बज्झइ] बंधता है; [परंपराए] और परम्परा से [मोक्खो] मोक्ष [हवे] प्राप्त होता है।