जं पुणु सगयं तच्चं सवियप्पं हवइ तह य अवियप्पं ।
सवियप्पं सासवयं णिरासवं विगय-संकप्पं ॥5॥
आतमतत्त्वने द्वै भेद, निरविकलप सविकलप निवेद ।
निरविकलप संवर को मूल, विकलप आस्रव यह जिय भूल ॥5॥
अन्वयार्थ : [पुणु] पुनः [ज] जो [सगयं तच्चं] स्वगत तत्त्व है वह [सवियप्पं] सविकल्प [तह य] तथा [अवियप्पं] अविकल्प रूप से दो प्रकार का [हवइ] है। [सवियप्पं] सविकल्प स्वतत्व [सासवयं] आस्रव सहित है। और [विगयसंकप्प] संकल्प-रहित निर्विकल्प स्वतत्त्व [णिरासवं] आस्रव-रहित है।