+ निर्विकल्पक स्वगत तत्त्व -
इंदिय-विसय-विरामे मणस्स णिल्लूरणं हवे जइया ।
तइया तं अवियप्पं ससरूवे अप्पणो तं तु ॥6॥
जहां न व्यापै विषय विकार, ह्वै मन अचल चपलता डार ।
सो अविकल्प कहावै तत्त, सोई आपरूप है सत्त ॥6॥
अन्वयार्थ : [जइया] जब [इंदिय विसयविरामे] इन्द्रियों के विषयों का विराम [इच्छानिरोध] हो जाता है [तइया] तब [मणस्स] मन का [पिल्लूरणं] निर्मूलन [हवे] होता है, और तभी [तं] वह [अवियप्पं] निर्विकल्पक स्वगत तत्त्व प्रकट होता है । [तं तु] और वह [अप्पणो] आत्मा का [ससरूवे] अपने स्वरूप में अवस्थान होता है।