बहिरब्भन्तर-गंथा मुक्का जेणेह तिविह-जोएण ।
सो णिग्गंथो भणिओ जिणलिंग-समासिओ समणो ॥10॥
अन्तर बाहिर परिग्रह जेह, मनवच तनसौं छांड़े नेह ।
सुद्धभाव धारक जब होय, यथा ज्ञान मुनिपद है सोय ॥10॥
अन्वयार्थ : [इह] इस लोक में [जेण] जिसने [तिविहजोएण] मन, वचन, काय इन तीन प्रकार के योगों से [बहिरभंतरगंथा] बाहिरी और भीतरी परिग्रहों को [मुक्का] त्याग दिया है, [सो] वह [जिलिंगसमासिओ] जिनेन्द्रदेव के लिंग का आश्रय करने वाला [समणो] श्रमण [णिग्गंथो] निर्ग्रन्थ [भणिओ] कहा गया है।