चलण-रहिओ मणुस्सो जह वंछइ मेरु-सिहरमारुहिउं ।
तह झाणेण विहीणो इच्छइ कम्मक्खयं साहू ॥13॥
जैसे चरनरहित नर पंग, चढ़न सकत गिरि मेरु उतंग ।
त्यौं विन साधु ध्यान अभ्यास, चाहै करौ करमकौ नास ॥13॥
अन्वयार्थ : [जह] जैसे [चलण-रहिओ] पाद-रहित [मणुस्सो] मनुष्य [मेरु-सिहर] सुमेरु पर्वतके शिखर पर [आरुहिउं] चढ़ने के लिए [वंछइ] इच्छा करे, [तह] वैसे ही [झाणेण] ध्यान से [विहीणो] रहित [साहू] साधु [कम्मक्खयं] कर्मों का क्षय [इच्छइ] करना चाहता है।