रागादिया विभावा बहिरंतर-उहय-वियप्पं मोत्तूणं ।
एयग्ग-मणो झायउ णिरंजणं णियय-अप्पाणं ॥18॥
राग विरोध मोह तजि वीर, तजि विकलप मन वचन सरीर ।
ह्वै निचिंत चिंता सब हारि, सुद्ध निरंजन आप निहारि ॥18॥
अन्वयार्थ : [रागादिया विभावा] रागादि विभावों को, तथा [बहिरंतर-उहवियप्प] बाहिरी और भीतरी दोनों प्रकार के विकल्पों को [मोत्तूणं] छोड़कर और [एयग्गमणो] एकाग्र मन होकर [णिरंजणं] कर्मरूप अंजन से रहित शुद्ध [णियय-अप्पाणं] अपने आत्मा का [झायउ] ध्यान करना चाहिए।