+ शुद्धात्मा इन स्थानों से रहित -
णत्थि कला संठाणं मग्गण-गुणठाण-जीवठाणाइं ।
ण य लद्धि-बंधठाणा णोदयठाणाइया केई ॥20॥
बंध उदै हिय लबधि न कोय, जीवथान संठान न होय ।
चौदह मारगना गुनथान, काल न कोय चेतना ठान ॥20॥
अन्वयार्थ : [उस निरंजन आत्मा के] [णत्थि कला] कोई कला नहीं है, [संठाणं] कोई संस्थान नहीं है, [मग्गण-गुणठाण] कोई मार्गणास्थान नहीं है, कोई गुणस्थान नहीं है, [जीवट्ठाणाई] और न कोई जीवस्थान है [ण य लद्धि बंधढाणा] न कोई लब्धिस्थान हैं, न कोई बन्धस्थान हैं, [णोदयठाणाइया केई] और न कोई उदयस्थान आदि हैं।