फास-रस-रूव-गंधा सद्दादीया य जस्स णत्थि पुणो ।
सुद्धो चेयण-भावो णिरंजणो सो अहं भणिओ ॥21॥
फरस वरन रस सुर नहि गंध, वरग वरगना जास न खंध ।
नहिं पुदगल नहिं जीवविभाव, सो मैं सुद्ध निरंजन राव ॥21॥
अन्वयार्थ : [पुणो] और [जस्स] जिसके [फास-रस-रूव-गंधा] स्पर्श, रस, गन्ध, रूप [सद्दादीया य] और शब्द आदिक [पत्थि] नहीं हैं [सो] वह [सुद्धो] शुद्ध [चेयणभावो] चेतनभावरूप [अहं] मैं [निरंजणो] निरंजन [भणिओ] कहा गया हूँ।