मण-वयण-कायजोया जइणो जइ जंति णिव्वियारत्तं ।
तो पयडइ अप्पाणं अप्पा परमप्पयसरूवं ॥31॥
मन वच काय विकार तजि, निरविकारता धार ।
प्रगट होय निज आतमा, परमातमपद सार ॥31॥
अन्वयार्थ : [जइणो] योगी के [जइ] यदि [मण-वयण-कायजोया] मन, वचन और काययोग [णिव्वियारत्त] निर्विकारता को [जंति] प्राप्त हो जाते हैं [तो] तो [अप्पा] आत्मा [अप्पाणं] अपने [परमप्पयसरूव] परमात्मस्वरूप को [पयडइ] प्रकट करता है।