+ ध्यान द्वारा संवर-निर्जरा-मोक्ष -
मण-वयण-कायरोहे (बज्झइ) रुज्झइ कम्माण आसवो णूणं ।
चिर-बद्धं गलइ सयं फलरहियं जाइ जोईणं ॥32॥
मौनगहित आसन सहित, चित्त चलाचल खोय ।
पूरव सत्तामैं गले, नये रुकैं सिव होय ॥32॥
अन्वयार्थ : [मण-वयण-कायरोहे] मनवचनकाय की चंचलता रुकने पर [कम्माण] कर्मों का [आसवो] आस्रव [णूणं] निश्चय से [रुज्झइ] रुक जाता है। तब [चिर-बद्ध] चिरकालीन बंधा हुआ कर्म [जोईणं] योगियों का [सयं] स्वयं [गलइ] गल जाता है और [फलरहियं] फल-रहित [जाइ] हो जाता है।