+ चंचल चित्त पूर्वक तप मुक्ति का साधन नहीं -
ण लहइ भव्वो मोक्खं जावय परदव्ववावडो चित्तो ।
उग्गतवं पि कुणंतो सुद्धे भावे लहुं लहइ ॥33॥
भव्य करैं चिरकाल तप, लहैं न सिव विन ज्ञान ।
ज्ञानवान ततकाल ही, पावैं पद निरवान ॥33॥
अन्वयार्थ : [जावय] जबतक [चित्तो] मन [पर दव्ववावडो] पर-द्रव्यों में व्याप्त [व्यापारयुक्त] है, तबतक [उग्ग तवं पि] उग्र तप को भी [कुणंतो] करता हुआ [भव्वो] भव्य जीव [मोक्खं] मोक्ष को [ण लहइ] नहीं पाता है। किन्तु [शुद्ध भावे] शुद्ध भाव में लीन होने पर [लहुं] शीघ्र ही [लहइ] पा लेता है।