रूसइ तूसइ णिच्चं इंदियविसएहि वसगओ मूढो ।
सकसाओ अण्णाणी णाणी एत्तो दु विवरीदो ॥35॥
इंद्रीविषै मगन रहै, राग दोष घटमाहिं ।
क्रोध मान कलुषित कुधी, ज्ञानी ऐसौ नाहिं ॥35॥
अन्वयार्थ : [इंदिय-विसएहिं] इन्द्रियों के विषयों में [वसगओ] आसक्त [मूढो] मूढ़ [सकसाओ] कषाय-युक्त [अण्णाणी] अज्ञानी पुरुष [णिच्च] नित्य [रूसइ] किसी में रुष्ट होता है और किसी में [तूसइ] सन्तुष्ट होता है, किन्तु [णाणी] ज्ञानी पुरुष [एत्तो दु] इससे [विवरीदो] विपरीत [स्वभाववाला] होता है ।