रायद्दोसादीहि य डहुलिज्जइ णेव जस्स मण-सलिलं ।
सो णिय-तच्चं पिच्छइ ण हु पिच्छइ तस्स विवरीओ ॥40॥
राग दोष कल्लोलबिन, जो मन जल थिर होय ।
सो देखै निजरूपकौं, और न देखै कोय ॥40॥
अन्वयार्थ : [जस्स] जिसका [मणसलिलं] मनरूपी जल [रागद्दोसादीहि य] रागद्वेष आदि के द्वारा [णेय] नहीं [डहुलिज्जइ] डंवाडोल होता है [सो] वह [णियतच्च] निजतत्त्व को [पिच्छइ] देखता है; [तस्स] इससे [विवरीओ] विपरीत पुरुष [ण हु] निश्चय से नहीं [पिच्छइ] देखता है।