सर-सलिले थिरभूए दीसइ णिरु णिवडियं पि जह रयणं ।
मण-सलिले थिरभूए दीसइ अप्पा तहा विमले ॥41॥
अमल सुथिर सरवर भयैं, दीसै रतनभण्डार ।
त्यौं मन निरमल थिरविषैं, दीसै चेतन सार ॥41॥
अन्वयार्थ : [जह] जैसे [सरसलिले] सरोवर के जल के [थिरभूए] स्थिर होने पर [णिवडियं पि] सरोवर में गिरा हुआ भी [रयणं] रत्न [णिरु] नियम से [दीसइ] दिखाई देता है, [तहा] उसी प्रकार [मणसलिले] मनरूपी जल के [थिरभूए] स्थिर होने पर [विमले] निर्मल भाव में [अप्पा] आत्मा [दीसइ] दिखाई देता है।