+ आत्मा का ध्याता ही वीतरागी -
जो अप्पाणं झायदि संवेयण-चेयणाइ-उवजुत्तो ।
सो हवइ वीयराओ णिम्मल-रयणत्तओ साहू ॥44॥
निरमल रत्नत्रय धरैं, सहित भाव वैराग ।
चेतन लखि अनुभौ करैं, वीतरागपद जाग ॥44॥
अन्वयार्थ : [जो संवेयणचेयणाइ उवजुत्तो] जो स्व-संवेदन चेतनादि से उपयुक्त [साहू] साधु [अप्पाणं] आत्मा को [झायदि] ध्याता है [सो] वह [णिम्मलरयणत्तओ] निर्मल रत्नत्रय का धारक [वीयराओ] वीतराग [हवइ] हो जाता है।