+ आत्मा का ध्याता को ही रत्नत्रय -
दंसण-णाण-चरित्तं जोई तस्सेह णिच्छयं भणइ ।
जो झायइ अप्पाणं सचेयणं सुद्ध-भावट्ठं ॥45॥
देखै जानै अनुसरै, आपविषैं जब आप ।
निरमल रत्नत्रय तहां जहां न पुन्य न पाप ॥45॥
अन्वयार्थ : [जो] जो [जोई] योगी [सचेयणं] सचेतन और [शुद्धभावटुं] शुद्ध भाव में स्थित योगी परमयोगी [अप्पाणं] आत्मा को [झायइ] ध्याता है [तस्स] उसको [इह] इस लोक में [णिच्छय] निश्चय [दंसणणाण-चरित्त] दर्शन ज्ञान चारित्र [भणइ] कहते हैं।