झाणट्ठिओ हु जोई जइ णो संवेइ णियय-अप्पाणं ।
तो ण लहइ तं सुद्धं भग्ग-विहीणो जहा रयणं ॥46॥
थिर समाधि वैरागजुत, होय न ध्यावै आप ।
भागहीन कैसैं करै, रतन विसुद्ध मिलाप ॥46॥
अन्वयार्थ : [झाणट्ठिओ] घ्यान में स्थित [जोई] योगी [जइ] यदि [हु] निश्चय से [णिययअप्पाणं] अपने आत्मा को [णो] नहीं [संवेइ] अनुभव करता है [तो] तो वह [तं] उस [सुद्धं] शुद्ध आत्मा को [ण] नहीं [लहइ] प्राप्त कर पाता है। [जहा] जैसे [भग्गविहीणो] भाग्यहीन मनुष्य [रयणं] रत्न को नहीं प्राप्त कर पाता है।