देह-सुहे पडिबद्धो जेण य सो तेण लहइ ण हु सुद्धं ।
तच्चं वियार-रहियं णिच्चं चिय झायमाणो हु ॥47॥
विषयसुखनमैं मगन जो, लहै न सुद्ध विचार ।
ध्यानवान विषयनि तजै लहै तत्त्व अविकार ॥47॥
अन्वयार्थ : [वियार-रहियं] विचार-रहित [तच्च] तत्त्वको [णिच्च] नित्य [चिय] ही [झायमाणो हु] निश्चय से ध्यान करता हुआ भी [जेण] यतः [देहसुहे] शरीर के सुख में [पडिबद्धो] अनुरक्त है [तेण] इसलिए [सो] वह [सुद्ध] शुद्ध आत्मस्वरूप को [ण हु] नहीं [लहइ] प्राप्त कर पाता है।