+ वीतरागी को कर्म की निर्जरा -
भुंजंतो कम्म-फलं कुणइ ण रायं तह य दोसं च ।
सो संचियं विणासइ अहिणव-कम्मं ण बंधेइ ॥51॥
करमउदय फल भोगतें, कर न राग विरोध ।
सो नासै पूरव करम, आगैं करै निरोध ॥51॥
अन्वयार्थ : (जो भव्य जीव) [कम्मफलं] कर्मों के फल को [भुजंतो] भोगता हुआ [ण राय] न राग को [तह य] और [दोसं च] न द्वेष को [कुणइ] करता है [सो] वह [संचियं] पूर्व संचित कर्म को [विणासइ] विनष्ट करता है और [अहिणवकम्म] नवीन कर्म को [ण बंधेइ] नहीं बांधता है।