परमाणु-मित्त-रायं जाम ण छंडेइ जोइ स-मणम्मि ।
सो कम्मेण ण मुच्चइ परमट्ठ-वियाणओ समणो ॥53॥
जबलौं परमानूसम राग, तबलौं करम सकैं नहिं त्याग ।
परमारथ ज्ञायक मुनि सोय, राग तजै बिनु काज न होय ॥53॥
अन्वयार्थ : [जाम] जबतक [जोई] योगी [समणम्मि] अपने मन में से [परिमाणुमित्तरायं] परमाणुमात्र भी राग को [ण छंडेइ] नहीं छोड़ता है, तबतक [परमट्ठवियाणओ] परमार्थ का ज्ञायक भी [स समणो] वह श्रमण [कम्मेण] कर्म से [ण मुच्चइ] नहीं छूटता है।