सुह-दुक्खं पि सहंतो णाणी झाणम्मि होइ दिढ-चित्तो ।
हेऊ कम्मस्स तओ णिज्जरणट्ठं इमो भणिओ ॥54॥
सुख दुख सहै करम वस साध, कर न राग विरोध उपाध ।
ज्ञानध्यानमैं थिर तपवंत, सो मुनि करै कर्मकौ अन्त ॥54॥
अन्वयार्थ : [सुह-दुक्खं पि] सुख-दुःख को भी [सहंतो] सहता हुआ [णाणी] ज्ञानी पुरुष जब [झाणम्मि] ध्यान में [दिढचित्तो] दृढ़-चित्त [होइ] होता है, तब उसका [तपो] तप [कम्मस्स] कर्म की [णिज्जरणट्ठं] निर्जरा के लिए [हेऊ] हेतु होता है [इमो] ऐसा [भणिओ] कहा गया है।