+ निश्चय रत्नत्रय -
स-सहावं वेदंतो णिच्चल-चित्तो विमुक्क-परभावो ।
सो जीवो णायव्वो दंसण-णाणं चरित्तं च ॥56॥
तजि परभाव चित्त थिर कीन, आप-स्वभावविषैं ह्वै लीन ।
सोई ज्ञानवान दृगवान, सोई चारितवान प्रधान ॥56॥
अन्वयार्थ : [ससहावं] अपने आत्मस्वभाव को [वेदंतो] अनुभव करता हुआ जो जीव [विमुक्कपरभावो] परभाव को छोड़कर [णिच्चलचित्तो] निश्चल चित्त होता है [सो जीवो] वही जीव [दंसण-णाणं चरित्तं च] सम्यग्दर्शन है, सम्यग्ज्ञान है और सम्यक् चारित्र है, ऐसा [णायव्वो] जानना चाहिए।