+ आत्मानुभव ही रत्नत्रय -
जो अप्पा तं णाणं जं णाणं तं च दंसणं चरणं ।
सा सुद्ध-चेयणा वि य णिच्छय-णयमस्सिए जीवे ॥57॥
आतमचारित दरसन ज्ञान, सुद्धचेतना विमल सुजान ।
कथन भेद है वस्तु अभेद, सुखी अभेद भेदमैं खेद ॥57॥
अन्वयार्थ : [णिच्छयणयमस्सिए] निश्चयनय के आश्रित [जीवे] जीव में [जो अप्पा] जो आत्मा है, [तं णाणं] वही ज्ञान है, [जं णाणं] और जो ज्ञान है [तं च दंसणं चरणं] वही दर्शन है, वही चारित्र है [सा शुद्धचेयणा वि य] और वही शुद्ध चेतना भी है।