उभय-विणट्ठे भावे णिय-उवलद्धे सु-सुद्ध-ससरूवे ।
विलसइ परमाणंदो जोईणं जोय-सत्तीए ॥58॥
जो मुनि थिर करि मनवचकाय, त्यागै राग दोष समुदाय ।
धरै ध्यान निज सुद्धसरूप, बिलसै परमानंद अनूप ॥58॥
अन्वयार्थ : [उभयविणट्ठे भावे] राग और द्वेषरूप दोनों भावों के विनष्ट होने पर [सुसुद्धससरूवे] अत्यन्त शुद्ध आत्मस्वरूप [णियउवलद्धे] निज भाव के उपलब्ध होने पर [जोयसत्तीए] योगशक्ति से [जोईणं] योगियों के [परमाणंदो] परम आनन्द [विलसइ] विलसित होता है।