किं किज्जइ जोएणं जस्स य ण हु अत्थि एरिसी सत्ती ।
फुरइ ण परमाणंदो सच्चेयण-संभवो सुहदो ॥59॥
जिह जोगी मन थिर नहिं कीन, जाकी सकति करम आधीन ।
करइ कहा न फुरे बल तास, लहै न चेतन सुखकी रास ॥59॥
अन्वयार्थ : [जोएण किं कीरइ] उस योग से क्या करना है ? [जस्स य] जिसकी [एरिसी] ऐसी [सत्ती] शक्ति [ण हु] नहीं [अत्थि] है कि उससे [सच्चेयणसंभवो] सत्-चेतन से उत्पन्न [सुहदो] सुखद [परमाणंदो] परमानन्द [ण फुरइ] प्रकट न हो।