जा किंचि वि चलइ मणो झाणे जोइस्स गहिय-जोयस्स ।
ताम ण परमाणंदो उप्पज्जइ परम-सुक्खयरो ॥60॥
जोग दियौ मुनि मनवचकाय, मन किंचित चलि बाहिर जाय ।
परमानंद परम सुखकंद, प्रगट न होय घटामैं चंद ॥60॥
अन्वयार्थ : [जा] जबतक [गहियजोयस्स] योग के धारक [जोइस्स] योगी का [मणो] मन [झाणे] ध्यान में [किंचिवि] कुछ भी [चलइ] चलायमान रहता है [ताम] तब तक [परमसोक्खयरो] परम सुख-कारक [परमाणंदो] परमानन्द [ण उप्पज्जइ] नहीं उत्पन्न होता है।