+ इंद्रिय-विषयों से अनासक्त योगी को आत्मलाभ -
अप्पसहावे थक्को जोई ण मुणेइ आगए विसए ।
जाणइ णिय-अप्पाणं पिच्छइ तं चेव सुविसुद्धं ॥62॥
विषय कषाय भाव करि नास, सुद्धसुभाव देखि जिनपास ।
ताहि जानि परसौं तजि काज, तहां लीन हूजै मुनिराज ॥62॥
अन्वयार्थ : [अप्पसहावे] आत्मस्वभाव में [थक्को] स्थित [जोई] योगी [आगए] उदय में आये हुए [विसए] इन्द्रियों के विषयों को [ण मुणेइ] नहीं जानता है। किन्तु [णिय-अप्पाणं] अपनी आत्मा को ही [जाणइ] जानता है [तं चेव] और उसी [सुविसुद्ध] अतिविशुद्ध आत्मा को [पिच्छइ] देखता है।