ण रमइ विसएसु मणो जोइस्सुवलद्धसुद्धतच्चस्स ।
एकीहवइ णिरासो मरइ पुणो झाणसत्थेण ॥63॥
विषय भोगसेती उचटाइ, शुद्धतत्त्वमैं चित्त लगाइ ।
होय निरास आस सब हरै, एक ध्यानअसिसौं मन मरै ॥63॥
अन्वयार्थ : [उवलद्धसुद्धतच्चस्स] जिसने शुद्धतत्त्व को प्राप्त कर लिया है, ऐसे [जोइस्स] योगी का [मणो] मन [विसएस] इन्द्रियों के विषयों में [ण रमह] नहीं रमता है। किन्त [णिरासो] विषयों से निराश होकर आत्मा में [एकीहवइ] एकमेव हो जाता है। [पुणो] पुनः [झाणसत्येण] ध्यानरूपी शस्त्र के द्वारा [मरइ] मरण को प्राप्त हो जाता है।