+ मोह के नष्ट होते ही मन नष्ट और उससे कर्म नष्ट -
ण मरइ तावेत्थ मणो जाम ण मोहो खयं गओ सव्वो ।
खीयंति खीणमोहे सेसाणि य घाइकम्माणि ॥64॥
मरै न मन जो जीवै मोह, मोह मरैं मन जनमन होय ।
ज्ञानदर्श आवर्न पलाय, अन्तरायकी सत्ता जाय ॥64॥
अन्वयार्थ : [जाम] जबतक [सव्वो मोहो] सम्पूर्ण मोह [खयं] क्षय को [ण गओ] नहीं प्राप्त होता है, [ताव] तबतक [इत्थ] इस आत्मा का [मणो] मन [ण मरइ] नहीं मरता है। [खीणमोहे] मोह के क्षीण होने पर [सेसाणि य] शेष भी [घाइकम्माणि] घाति-कर्म [खीयंति] नष्ट हो जाते हैं।