+ केवलज्ञान की उत्पत्ति -
घाइचउक्के णट्ठे उप्पज्जइ विमलकेवलं णाणं ।
लोयालोयपयासं कालत्तयजाणगं परमं ॥66॥
कीनैं चारिघातिया हान, उपजै निरमल केवलज्ञान ।
लोकालोक त्रिकाल प्रकास, एक समैंमैं सुखकी रास ॥66॥
अन्वयार्थ : [घाइचउक्के गट्टे] चारों घातिया कर्मों के नष्ट होने पर [लोयालोयपयासं] लोक और अलोक को प्रकाशित करनेवाला, [कालत्तय जाणगं] तीनों कालों को जाननेवाला, [परम] परम [विमल] निर्मल [केवलणाणं] केवलज्ञान [उप्पज्जइ] उत्पन्न होता है।