+ सिद्ध-अवस्था -
तिहुवणपुज्जो होउं खविउ सेसाणि कम्मजालाणि ।
जायइ अभूदपुव्वो लोयग्गणिवासिओ सिद्धो ॥67॥
त्रिभुवन इन्द्र नमैं कर जोर, भाजैं दोषचोर लखि भोर ।
आव जु नाम गोत वेदनी, नासि मयैं नूतन सिवधनी ॥67॥
अन्वयार्थ : [तिहुवणपुज्जो] अरहन्त अवस्था में तीन भुवन के जीवों का पूज्य होकर, पुनः [सेसाणि] शेष [कम्मजालाणि] कर्मजालों को [खविउ] क्षय करके [अभूदपुल्वो] अभूतपूर्व [लोयग्गणिवासिओ] लोकाग्र का निवासी [सिद्धो] सिद्ध परमात्मा [जायइ] हो जाता है।