+ स्वभाव रत्नत्रय -
णियमेण य जं कज्जं तं णियमं णाणदंसणचरित्तं
विवरीयपरिहरत्थं भणिदं खलु सारमिदि वयणं ॥3॥
नियमेन च यत्कार्यं स नियमो ज्ञानदर्शनचारित्रम् ।
विपरीतपरिहारार्थं भणितं खलु सारमिति वचनम् ॥३॥
सद् ज्ञान-दर्शन-चरण ही हैं 'नियम' जानो नियम से ।
विपरीत का परिहार होता सार इस शुभ वचन से ॥३॥
अन्वयार्थ : [सः नियमः] वह नियम [यत् कार्यं] करने योग्य [ज्ञानदर्शनचारित्रम्] ज्ञानदर्शनचारित्र की [नियमेन च] नियामकता से [विपरीतपरिहारार्थं भणितम् खलु] विपरीत का परिहार कहने के लिए वास्तव में [सारम् इति वचनम्] 'सार' ऐसा वचन है ।
Meaning :  What is in reality worth doing (is) Niyama, and that is belief, knowledge, conduct.

  पद्मप्रभमलधारिदेव 

पद्मप्रभमलधारिदेव : संस्कृत
अत्र नियमशब्दस्य सारत्वप्रतिपादनद्वारेण स्वभावरत्नत्रयस्वरूपमुक्त म् ।यः सहजपरमपारिणामिकभावस्थितः स्वभावानन्तचतुष्टयात्मकः शुद्धज्ञानचेतना-परिणामः स नियमः । नियमेन च निश्चयेन यत्कार्यं प्रयोजनस्वरूपं ज्ञानदर्शनचारित्रम् ।ज्ञानं तावत् तेषु त्रिषु परद्रव्यनिरवलंबत्वेन निःशेषतोन्तर्मुखयोगशक्ते : सकाशात् निज-परमतत्त्वपरिज्ञानम् उपादेयं भवति । दर्शनमपि भगवत्परमात्मसुखाभिलाषिणो जीवस्यशुद्धान्तस्तत्त्वविलासजन्मभूमिस्थाननिजशुद्धजीवास्तिकायसमुपजनितपरमश्रद्धानमेव भवति ।चारित्रमपि निश्चयज्ञानदर्शनात्मककारणपरमात्मनि अविचलस्थितिरेव । अस्य तु नियम-शब्दस्य निर्वाणकारणस्य विपरीतपरिहारार्थत्वेन सारमिति भणितं भवति ॥३॥

(कलश-आर्या)
इति विपरीतविमुक्तं रत्नत्रयमनुत्तमं प्रपद्याहम् ।
अपुनर्भवभामिन्यां समुद्भवमनंगशं यामि ॥१०॥



यहाँ, 'नियम' शब्द को 'सार' शब्द क्यों लगाया है उसके प्रतिपादन द्वारा स्वभाव रत्नत्रय का स्वरूप कहा है । जो सहज परम पारिणामिक भाव से स्थित, स्वभाव-अनन्तचतुष्टयात्मक शुद्ध-ज्ञान-चेतना परिणाम सो नियम (-कारणनियम) है । नियम (-कार्यनियम) अर्थात्निश्चय से (निश्चित) जो करने योग्य - प्रयोजनस्वरूप - हो वह अर्थात् ज्ञानदर्शनचारित्र । उन तीनों में से प्रत्येक का स्वरूप कहा जाता है :

  1. परद्रव्य का अवलंबन लिये बिना निःशेष रूप से अन्तर्मुख योग-शक्ति में से उपादेय (-उपयोग को सम्पूर्णरूप से अन्तर्मुख करके ग्रहण करने योग्य) ऐसा जो निज परमतत्त्व का परिज्ञान (-जानना) सो ज्ञान है ।
  2. भगवान परमात्मा के सुख के अभिलाषी जीव को शुद्ध अन्तःतत्त्व के विलास का जन्म-भूमि-स्थान जो निज शुद्ध जीवास्तिकाय उससे उत्पन्न होनेवाला जो परम श्रद्धान वही दर्शन है ।
  3. निश्चय-ज्ञान-दर्शनात्मक कारण-परमात्मा में अविचल स्थिति (-निश्चलरूप से लीन रहना) ही चारित्र है । यह ज्ञान-दर्शन-चारित्र स्वरूप नियम निर्वाण का कारण है । उस 'नियम' शब्द को विपरीत के परिहार हेतु 'सार' शब्द जोड़ा गया है ॥३॥

    (कलश-रोला)
    विपर्यास से रहित अनुत्तम रत्नत्रय को ।
    पाकर मैं तो वरण करूँ अब शिवरमणी को ॥
    प्राप्त करूँ मैं निश्चय रत्नत्रय के बल से ।
    अरे अतीन्द्रिय अशरीरी आत्मीक सुक्ख को ॥10॥
    इसप्रकार मैं विपरीत रहित (विकल्परहित) अनुत्तम रत्नत्रय का आश्रय करके मुक्तिरूपी स्त्री से उत्पन्न अनङ्ग (अशरीरी, अतीन्द्रिय, आत्मिक) सुख को प्राप्त करता हूँ ॥१०॥