पद्मप्रभमलधारिदेव : संस्कृत
आप्तः शंकारहितः । शंका हि सकलमोहरागद्वेषादयः । आगमः तन्मुखारविन्द-विनिर्गतसमस्तवस्तुविस्तारसमर्थनदक्षः चतुरवचनसन्दर्भः । तत्त्वानि च बहिस्तत्त्वान्तस्तत्त्व-परमात्मतत्त्वभेदभिन्नानि अथवा जीवाजीवास्रवसंवरनिर्जराबन्धमोक्षाणां भेदात्सप्तधा भवन्ति ।तेषां सम्यक्श्रद्धानं व्यवहारसम्यक्त्वमिति ॥५॥ (कलश-आर्या) भवभयभेदिनि भगवति भवतः किं भक्ति रत्र न समस्ति । तर्हि भवाम्बुधिमध्यग्राहमुखान्तर्गतो भवसि ॥१२॥ यह, व्यवहार-सम्यक्त्व के स्वरूप का कथन है । आप्त अर्थात् शंका-रहित । शंका अर्थात् सकल मोह-राग-द्वेषादिक (दोष) । आगम अर्थात् आप्त के मुखारविन्द से निकली हुई, समस्त वस्तु-विस्तार का स्थापन करने में समर्थ ऐसी चतुर वचन रचना । तत्त्व बहिःतत्त्व और अन्तःतत्त्वरूप परमात्म तत्त्व ऐसे (दो) भेदोंवाले हैं अथवा जीव, अजीव, आस्रव, संवर, निर्जरा, बन्ध तथा मोक्ष ऐसे भेदों के कारण सात प्रकार के हैं । उनका (आप्त, आगम और तत्त्व का) सम्यक् श्रद्धान सो व्यवहार-सम्यक्त्व है ॥५॥ (कलश-दोहा)
भव के भय का भेदन करनेवाले इन भगवान के प्रति क्या तुझे भक्ति नहीं है ? तो तू भव-समुद्र के मध्य में रहनेवाले मगर के मुख में है ॥१२॥
भवभयभेदक आप्त की भक्ति नहीं यदि रंच । तो तू है मुख मगर के भवसागर के मध्य ॥१२॥ |