पद्मप्रभमलधारिदेव : संस्कृत
अष्टादशदोषस्वरूपाख्यानमेतत् । असातावेदनीयतीव्रमंदक्लेशकरी क्षुधा । असातावेदनीयतीव्रतीव्रतरमंदमंदतरपीडयासमुपजाता तृषा । इहलोकपरलोकात्राणागुप्तिमरणवेदनाकस्मिकभेदात् सप्तधा भवति भयम् । क्रोधनस्य पुंसस्तीव्रपरिणामो रोषः । रागः प्रशस्तोऽप्रशस्तश्च; दानशीलोपवासगुरुजनवैयावृत्त्या-दिसमुद्भवः प्रशस्तरागः, स्त्रीराजचौरभक्त विकथालापाकर्णनकौतूहलपरिणामो ह्यप्रशस्तरागः । चातुर्वर्ण्यश्रमणसंघवात्सल्यगतो मोहः प्रशस्त इतरोऽप्रशस्त एव । चिन्तनं धर्मशुक्लरूपं प्रशस्तमितरदप्रशस्तमेव । तिर्यङ्मानवानां वयःकृतदेहविकार एव जरा । वातपित्तश्लेष्मणांवैषम्यसंजातकलेवरविपीडैव रुजा । सादिसनिधनमूर्तेन्द्रियविजातीयनरनारकादिविभावव्यंजन-पर्यायविनाश एव मृत्युरित्युक्त : । अशुभकर्मविपाकजनितशरीरायाससमुपजातपूतिगंधसम्बन्ध-वासनावासितवार्बिन्दुसंदोहः स्वेदः । अनिष्टलाभः खेदः । सहजचतुरकवित्वनिखिलजनता-कर्णामृतस्यंदिसहजशरीरकुलबलैश्वर्यैरात्माहंकारजननो मदः । मनोज्ञेषु वस्तुषु परमा प्रीतिरेवरतिः । परमसमरसीभावभावनापरित्यक्तानां क्वचिदपूर्वदर्शनाद्विस्मयः । केवलेन शुभकर्मणा,केवलेनाशुभकर्मणा, मायया, शुभाशुभमिश्रेण देवनारकतिर्यङ्मनुष्यपर्यायेषूत्पत्तिर्जन्म ।दर्शनावरणीयकर्मोदयेन प्रत्यस्तमितज्ञानज्योतिरेव निद्रा । इष्टवियोगेषु विक्लवभाव एवोद्वेगः । एभिर्महादोषैर्व्याप्तास्त्रयो लोकाः । एतैर्विनिर्मुक्तो वीतरागसर्वज्ञ इति । तथा चोक्तम् - सो धम्मो जत्थ दया सो वि तवो विसयणिग्गहो जत्थ । दसअठ्ठदोसरहिओ सो देवो णत्थि संदेहो ॥ तथा चोक्तं श्रीविद्यानंदस्वामिभिः — (मालिनी) अभिमतफ लसिद्धेरभ्युपायः सुबोधः स च भवति सुशास्त्रात्तस्य चोत्पत्तिराप्तात् । इति भवति स पूज्यस्तत्प्रसादात्प्रबुद्धैः न हि कृतमुपकारं साधवो विस्मरन्ति ॥ तथा हि - (कलश-मालिनी) शतमखशतपूज्यः प्राज्यसद्बोधराज्यः स्मरतिरसुरनाथः प्रास्तदुष्टाघयूथः । पदनतवनमाली भव्यपद्मांशुमाली दिशतु शमनिशं नो नेमिरानन्दभूमिः ॥१३॥ यह, अठारह दोषों के स्वरूप का कथन है ।
इसीप्रकार (अन्य शास्त्र में गाथा द्वारा) कहा है कि - वह धर्म है जहाँ दया है, वह तप है जहाँ विषयों का निग्रह है, वह देव है जो अठारह दोष रहित है; इस सम्बन्ध में संशय नहीं है । और श्री विद्यानन्दस्वामी ने (श्लोक द्वारा) कहा है किः - (श्लोक-रोला)
इष्ट-फल की सिद्धि का उपाय सुबोध है (अर्थात् मुक्ति की प्राप्ति का उपाय सम्यग्ज्ञान है ), सुबोध सुशास्त्र से होता है, सुशास्त्र की उत्पत्ति आप्त से होती है; इसलिये उनके प्रसाद के कारण आप्त पुरुष बुधजनों द्वारा पूजने योग्य हैं (अर्थात् मुक्ति सर्वज्ञदेव की कृपा का फल होने से सर्वज्ञदेव ज्ञानियों द्वारा पूजनीय हैं), क्योंकि किये हुए उपकार को साधु पुरुष (सज्जन) भूलते नहीं हैं ।इष्ट अर्थ की सिद्धि होती है सुबोध से । अर सुबोध उपलब्धी होती है सुशास्त्र से ॥ और आप्त से शास्त्र पूज्य हैं आप्त इसलिये । किया गया उपकार संतजन कभी न भूलें ॥१॥ और (कलश-रोला)
जो सौ इन्द्रों से पूज्य हैं, जिनका सद्बोधरूपी (सम्यग्ज्ञानरूपी) राज्य विशाल है, कामविजयी (लौकांतिक) देवों के जो नाथ हैं, दुष्ट पापों के समूह का जिन्होंने नाश किया है, श्री कृष्ण जिनके चरणों में नमें हैं, भव्योंरूपी कमलों को विकसित करने में जो सूर्य समान हैं, वे आनन्दके स्थानरूप नेमिनाथ भगवान हमें शाश्वत सुख प्रदान करें ॥१३॥
शत इन्द्रों से पूज्य ज्ञान साम्राज्य अधपती । कामजयी लौकान्तिक देवों के अधिनायक ॥ पाप विनाशक भव्यनीरजों के तुम सूरज । नेमीश्वर सुखभूमि सुक्ख दें भवभयनाशक ॥१३॥ |