पद्मप्रभमलधारिदेव : संस्कृत
तीर्थंकरपरमदेवस्वरूपाख्यानमेतत् । आत्मगुणघातकानि घातिकर्माणि ज्ञानदर्शनावरणान्तरायमोहनीयकर्माणि, तेषांनिरवशेषेण प्रध्वंसनान्निःशेषदोषरहितः अथवा पूर्वसूत्रोपात्ताष्टादशमहादोषनिर्मूलनान्निः- शेषदोषनिर्मुक्त इत्युक्त : । सकलविमलकेवलबोधकेवलद्रष्टिपरमवीतरागात्मकानन्दाद्यनेक-विभवसमृद्धः । यस्त्वेवंविधः त्रिकालनिरावरणनित्यानन्दैकस्वरूपनिजकारणपरमात्मभावनोत्पन्न-कार्यपरमात्मा स एव भगवान् अर्हन् परमेश्वरः । अस्य भगवतः परमेश्वरस्यविपरीतगुणात्मकाः सर्वे देवाभिमानदग्धा अपि संसारिण इत्यर्थः । तथा चोक्तं श्रीकुन्दकुन्दाचार्यदेवैः तेजो दिट्ठी णाणं इड्ढी सोक्खं तहेव ईसरियं । तिहुवणपहाणदइयं माहप्पं जस्स सो अरिहो ।। तथा चोक्तं श्रीमदमृतचन्द्रसूरिभिः - (कलश-शार्दूलविक्रीडित) कान्त्यैव स्नपयन्ति ये दशदिशो धाम्ना निरुन्धन्ति ये धामोद्दाममहस्विनां जनमनो मुष्णन्ति रूपेण ये । दिव्येन ध्वनिना सुखं श्रवणयोः साक्षात्क्षरन्तोऽमृतं वन्द्यास्तेऽष्टसहस्रलक्षणधरास्तीर्थेश्वराः सूरयः ॥ तथा हि — (कलश-मालिनी) जगदिदमजगच्च ज्ञाननीरेरुहान्त- र्भ्रमरवदवभाति प्रस्फुटं यस्य नित्यम् । तमपि किल यजेऽहं नेमितीर्थंकरेशं जलनिधिमपि दोर्भ्यामुत्तराम्यूर्ध्ववीचिम् ॥१४॥ यह, तीर्थंकर परमदेव के स्वरूप का कथन है । आत्मा के गुणों का घात करनेवाले घातिकर्म ज्ञानावरणी, दर्शनावरणी, अन्तराय तथा मोहनीय कर्म हैं; उनका निरवशेष रूप से प्रध्वंस कर देने के कारण (कुछ भी शेष रखे बिना नाश कर देने से) जो 'निःशेषदोषरहित' हैं अथवा पूर्व सूत्र में (छठवीं गाथा में) कहे हुए अठारह महादोषों को निर्मूल कर दिया है इसलिये जिन्हें 'निःशेषदोषरहित' कहा गया है और जो 'सकलविमल (सर्वथा निर्मल) केवलज्ञान-केवलदर्शन, परमवीतरागात्मक आनन्द इत्यादि अनेक वैभव से समृद्ध' हैं, ऐसे जो परमात्मा - अर्थात् त्रिकालनिरावरण, नित्यानन्द - एकस्वरूप निज कारण-परमात्मा की भावना से उत्पन्न कार्य-परमात्मा, वही भगवान अर्हत् परमेश्वर हैं । इन भगवान परमेश्वर के गुणों से विपरीत गुणों वाले समस्त (देवाभास), भले देवत्व के अभिमान से दग्ध हों तथापि, संसारी हैं । ऐसा (इस गाथा का) अर्थ है । इसीप्रकार (भगवान) श्री कुन्दकुन्दाचार्यदेव ने (प्रवचनसार की गाथा में) कहा है किः - (हरिगीत)
तेज (भामण्डल), दर्शन (केवलदर्शन), ज्ञान (केवलज्ञान),ऋद्धि (समवसरणादि विभूति), सौख्य (अनन्त अतीन्द्रिय सुख), (इन्द्रादिक भी दासरूप से वर्ते ऐसा) ऐश्वर्य, और (तीन लोक के अधिपतियों के वल्लभ होनेरूप) त्रिभुवनप्रधान वल्लभपना -- ऐसा जिनका माहात्म्य है, वे अर्हंत हैं ।प्राधान्य है त्रैलोक्य में ऐश्वर्य ऋद्धि सहित हैं । तेज दर्शन ज्ञान सुख युत पूज्य श्री अरहंत हैं ॥प्र.सा.71*॥ और इसीप्रकार (आचार्यदेव) श्रीमद् अमृतचन्द्रसूरि ने (आत्मख्याति के २४वें श्लोक / कलश में) कहा है कि :- (हरिगीत)
जो कान्ति से दशों दिशाओं को धोते हैं -- निर्मल करते हैं, जो तेज द्वारा अत्यन्त तेजस्वी सूर्यादिक के तेज को ढँक देते हैं, जो रूप से जनों के मन हर लेते हैं, जो दिव्यध्वनि द्वारा (भव्यों के) कानों में मानों कि साक्षात् अमृत बरसाते हों ऐसा सुख उत्पन्न करते हैं तथा जो एक हजार और आठ लक्षणों को धारण करते हैं, वे तीर्थङ्करसूरि वंद्य हैं ।लोकमानस रूप से रवितेज अपने तेज से । जो हरें निर्मल करें दशदिश कान्तिमय तनतेज से ॥ जो दिव्यध्वनि से भव्यजन के कान में अमृत भरें । उन सहस अठ लक्षण सहित जिन-सूरि को वंदन करें ॥स.सा.क.-२४॥ और (सातवीं गाथा की टीका पूर्ण करते हुए टीकाकार मुनिराज श्रीपद्मप्रभमलधारिदेव श्लोक द्वारा श्री नेमिनाथ तीर्थंकर की स्तुति करते हैं ) :- (कलश--रोला)
जिसप्रकार कमल के भीतर भ्रमर समा जाता है उसीप्रकार जिनके ज्ञानकमल में यह जगत तथा अजगत (लोक तथा अलोक) सदा स्पष्टरूप से समा जाते हैं - ज्ञात होते हैं, उन नेमिनाथ तीर्थंकर भगवान को मैं सचमुच पूजता हूँ कि जिससे ऊँची तरंगोंवाले समुद्र को भी (दुस्तर संसार-समुद्र को भी) दो भुजाओं से पार कर लूँ ।
अलिगण स्वयं समा जाते ज्यों कमल पुष्प में । त्यों ही लोकालोक लीन हों ज्ञान कमल में ॥ जिनके उन श्री नेमिनाथ के चरण जजूँ मैं । हो जाऊँ मैं पार भवोदधि निज भुजबल से ॥१४॥ |