+ आगम का स्वरूप -
तस्स मुहुग्गदवयणं पुव्वावरदोसविरहियं सुद्धं ।
आगममिदि परिकहियं तेण दु कहिया हवंति तच्चत्था ॥8॥
तस्य मुखोद्गतवचनं पूर्वापरदोषविरहितं शुद्धम् ।
आगममिति परिकथितं तेन तु कथिता भवन्ति तत्त्वार्थाः ॥८॥
पूरवापर दोष विरहित वचन जिनवर देव के ।
आगम कहे है उन्हीं में तत्त्वारथों का विवेचन ॥८॥
अन्वयार्थ : [तस्य मुखोद्गतवचनं] उनके मुख से निकली हुई वाणी जो कि [पूर्वापरदोषविरहितं शुद्धम्] पूर्वापर दोष रहित (आगे पीछे विरोध रहित) और शुद्ध है, उसे [आगमम् इति परिकथितं] आगम कहा है; [तेन तु] और उसने [तत्त्वार्थाः] तत्त्वार्थ [कथिताः भवन्ति] कहे हैं ।
Meaning : . Words proceeding from his mouth, pure and free from the flaw of inconsistency are called Agama (scripture.) In that Agama the principles (Tattvartha) are enunciated

  पद्मप्रभमलधारिदेव 

पद्मप्रभमलधारिदेव : संस्कृत
परमागमस्वरूपाख्यानमेतत् ।
तस्य खलु परमेश्वरस्य वदनवनजविनिर्गतचतुरवचनरचनाप्रपञ्चः पूर्वापरदोषरहितः,तस्य भगवतो रागाभावात् पापसूत्रवद्धिंसादिपापक्रियाभावाच्छुद्धः परमागम इति परिकथितः । तेन परमागमामृतेन भव्यैः श्रवणाञ्जलिपुटपेयेन मुक्ति सुन्दरीमुखदर्पणेन संसरणवारिनिधिमहा-वर्तनिमग्नसमस्तभव्यजनतादत्तहस्तावलम्बनेन सहजवैराग्यप्रासादशिखरशिखामणिना अक्षुण्ण-मोक्षप्रासादप्रथमसोपानेनस्मरभोगसमुद्भूताप्रशस्तरागाङ्गारैः पच्यमानसमस्तदीनजनतामहत्क्लेश-निर्नाशनसमर्थसजलजलदेन कथिताः खलु सप्त तत्त्वानि नव पदार्थाश्चेति । तथा चोक्तं श्रीसमन्तभद्रस्वामिभिः -
(श्लोक--आर्या)
अन्यूनमनतिरिक्तं याथातथ्यं विना च विपरीतात् ।
निःसन्देहं वेद यदाहुस्तज्ज्ञानमागमिनः ॥र.क.श्रा.॥
(कलश--हरिणी)
ललितललितं शुद्धं निर्वाणकारणकारणं
निखिलभविनामेतत्कर्णामृतं जिनसद्वचः ।
भवपरिभवारण्यज्वालित्विषां प्रशमे जलं
प्रतिदिनमहं वन्दे वन्द्यं सदा जिनयोगिभिः ॥१५॥


यह, परमागम के स्वरूप का कथन है ।

उन (पूर्वोक्त) परमेश्वर के मुख-कमल से निकली हुई चतुर वचन-रचना का विस्तार, जो कि 'पूर्वापर दोष रहित' है और उन भगवान को राग का अभाव होने से पाप-सूत्र की भाँति हिंसादि पाप-क्रिया-शून्य होने से 'शुद्ध' है, वह परमागम कहा गया है । उस परमागम ने, कि
  • जो (परमागम) भव्यों को कर्णरूपी अञ्जलिपुट से पीने योग्य अमृत है,
  • जो मुक्ति-सुन्दरी के मुख का दर्पण है (अर्थात् जो परमागम मुक्ति का स्वरूप दरशाता है),
  • जो संसार-समुद्र के महा-भँवर में निमग्न समस्त भव्यजनों को हस्तावलम्बन (हाथ का सहारा) देता है,
  • जो सहज वैराग्यरूपी महल के शिखर का शिखामणि है,
  • जो कभी न देखे हुए (अनजाने, अननुभूत, जिस पर स्वयं पहले कभी नहीं गया है ऐसे) मोक्ष-महल की प्रथम सीढ़ी है और
  • जो काम-भोग से उत्पन्न होनेवाले अप्रशस्त रागरूप अंगारों द्वारा सिकते हुए समस्त दीन-जनों के महाक्लेश का नाश करने में समर्थ सजल मेघ (पानी से भरा हुआ बादल) है,
उसने, वास्तव में सात तत्त्व तथा नव-पदार्थ कहे हैं । इसीप्रकार (आचार्यदेव) श्री समन्तभद्र-स्वामी ने (रत्नकरण्डश्रावकाचार में ४२वें श्लोक द्वारा) कहा है कि :-

(हरिगीत)
जो न्यूनता विपरीतता अर अधिकता से रहित है ।
सन्देह से भी रहित है स्पष्टता से सहित है ॥
जो वस्तु जैसी उसे वैसी जानता जो ज्ञान है ।
जाने जिनागम वे कहें वह ज्ञान सम्यग्ज्ञान है ॥र.क.श्रा.-42॥
जो न्यूनता बिना, अधिकता बिना, विपरीतता बिना यथातथ वस्तुस्वरूप को निःसन्देह रूप से जानता है उसे आगमिज्ञ ज्ञान (सम्यग्ज्ञान) कहते हैं ।

(कलश--हरिगीत)
मुक्तिमग के मग तथा जो ललित में भी ललित हैं ।
जो भविजनों के कर्ण-अमृत और अनुपम शुद्ध हैं ॥
भविविजन के उग्र दावानल शमन को नीर हैं ।
मैं नमूँ उन जिनवचन को जो योगिजन के वंद्य हैं ॥१५॥
जो (जिनवचन) ललित में ललित हैं, जो शुद्ध हैं, जो निर्वाण के कारण का कारण हैं, जो सर्व भव्यों के कर्णों को अमृत हैं, जो भवभवरूपी अरण्य के उग्र दावानल को शांत करने में जल हैं और जो जैन योगियों द्वारा सदा वंद्य हैं, ऐसे इन जिन-भगवान के सद्वचनों को (सम्यक् जिनागम को) मैं प्रतिदिन वन्दन करता हूँ ।