पद्मप्रभमलधारिदेव : संस्कृत
परमागमस्वरूपाख्यानमेतत् । तस्य खलु परमेश्वरस्य वदनवनजविनिर्गतचतुरवचनरचनाप्रपञ्चः पूर्वापरदोषरहितः,तस्य भगवतो रागाभावात् पापसूत्रवद्धिंसादिपापक्रियाभावाच्छुद्धः परमागम इति परिकथितः । तेन परमागमामृतेन भव्यैः श्रवणाञ्जलिपुटपेयेन मुक्ति सुन्दरीमुखदर्पणेन संसरणवारिनिधिमहा-वर्तनिमग्नसमस्तभव्यजनतादत्तहस्तावलम्बनेन सहजवैराग्यप्रासादशिखरशिखामणिना अक्षुण्ण-मोक्षप्रासादप्रथमसोपानेनस्मरभोगसमुद्भूताप्रशस्तरागाङ्गारैः पच्यमानसमस्तदीनजनतामहत्क्लेश-निर्नाशनसमर्थसजलजलदेन कथिताः खलु सप्त तत्त्वानि नव पदार्थाश्चेति । तथा चोक्तं श्रीसमन्तभद्रस्वामिभिः - (श्लोक--आर्या) अन्यूनमनतिरिक्तं याथातथ्यं विना च विपरीतात् । निःसन्देहं वेद यदाहुस्तज्ज्ञानमागमिनः ॥र.क.श्रा.॥ (कलश--हरिणी) ललितललितं शुद्धं निर्वाणकारणकारणं निखिलभविनामेतत्कर्णामृतं जिनसद्वचः । भवपरिभवारण्यज्वालित्विषां प्रशमे जलं प्रतिदिनमहं वन्दे वन्द्यं सदा जिनयोगिभिः ॥१५॥ यह, परमागम के स्वरूप का कथन है । उन (पूर्वोक्त) परमेश्वर के मुख-कमल से निकली हुई चतुर वचन-रचना का विस्तार, जो कि 'पूर्वापर दोष रहित' है और उन भगवान को राग का अभाव होने से पाप-सूत्र की भाँति हिंसादि पाप-क्रिया-शून्य होने से 'शुद्ध' है, वह परमागम कहा गया है । उस परमागम ने, कि
(हरिगीत)
जो न्यूनता बिना, अधिकता बिना, विपरीतता बिना यथातथ वस्तुस्वरूप को निःसन्देह रूप से जानता है उसे आगमिज्ञ ज्ञान (सम्यग्ज्ञान) कहते हैं ।जो न्यूनता विपरीतता अर अधिकता से रहित है । सन्देह से भी रहित है स्पष्टता से सहित है ॥ जो वस्तु जैसी उसे वैसी जानता जो ज्ञान है । जाने जिनागम वे कहें वह ज्ञान सम्यग्ज्ञान है ॥र.क.श्रा.-42॥ (कलश--हरिगीत)
जो (जिनवचन) ललित में ललित हैं, जो शुद्ध हैं, जो निर्वाण के कारण का कारण हैं, जो सर्व भव्यों के कर्णों को अमृत हैं, जो भवभवरूपी अरण्य के उग्र दावानल को शांत करने में जल हैं और जो जैन योगियों द्वारा सदा वंद्य हैं, ऐसे इन जिन-भगवान के सद्वचनों को (सम्यक् जिनागम को) मैं प्रतिदिन वन्दन करता हूँ ।
मुक्तिमग के मग तथा जो ललित में भी ललित हैं । जो भविजनों के कर्ण-अमृत और अनुपम शुद्ध हैं ॥ भविविजन के उग्र दावानल शमन को नीर हैं । मैं नमूँ उन जिनवचन को जो योगिजन के वंद्य हैं ॥१५॥ |