+ उपयोग लक्षण -
जीवो उवओगमओ उवओगो णाणदंसणो होइ ।
णाणुवओगो दुविहो सहावणाणं विहावणाणं ति ॥10॥
जीव उपयोगमयः उपयोगो ज्ञानदर्शनं भवति ।
ज्ञानोपयोगो द्विविधः स्वभावज्ञानं विभावज्ञानमिति ॥१०॥
जीव है उपयोगमय उपयोग दर्शन ज्ञान है ।
स्वभाव और विभाव इस विधि ज्ञान दोय प्रकार है ॥१०॥
अन्वयार्थ : [जीवः] जीव [उपयोगमयः] उपयोगमय है । [उपयोगः] उपयोग [ज्ञानदर्शनं भवति] ज्ञान और दर्शन है । [ज्ञानोपयोगः द्विविधः] ज्ञानोपयोग दो प्रकार का है - [स्वभावज्ञानं] स्वभावज्ञान और [विभावज्ञानम् इति] विभावज्ञान ।
Meaning : Soul is characterised by Upayoga. Upayoga is towards Darsana or Jnana. Jnana-Upayoga is of two kinds, Swabhava Jnana or Vibhava Jnana

  पद्मप्रभमलधारिदेव 

पद्मप्रभमलधारिदेव : संस्कृत
अत्रोपयोगलक्षणमुक्तम् ।
आत्मनश्चैतन्यानुवर्ती परिणामः स उपयोगः । अयं धर्मः । जीवो धर्मी । अनयोःसम्बन्धः प्रदीपप्रकाशवत् । ज्ञानदर्शनविकल्पेनासौ द्विविधः । अत्र ज्ञानोपयोगोऽपि स्वभाव-विभावभेदाद् द्विविधो भवति । इह हि स्वभावज्ञानम् अमूर्तम् अव्याबाधम् अतीन्द्रियम्अविनश्वरम् । तच्च कार्यकारणरूपेण द्विविधं भवति । कार्यं तावत् सकलविमलकेवलज्ञानम् । तस्य कारणं परमपारिणामिकभावस्थितत्रिकालनिरुपाधिरूपं सहजज्ञानं स्यात् । केवलं विभाव-रूपाणि ज्ञानानि त्रीणि कुमतिकुश्रुतविभङ्गभाञ्जि भवन्ति । एतेषाम् उपयोगभेदानां ज्ञानानांभेदो वक्ष्यमाणसूत्रयोर्द्वयोर्बोद्धव्य इति ।

(कलश--मालिनी)
अथ सकलजिनोक्त ज्ञानभेदं प्रबुद्ध्वा
परिहृतपरभावः स्वस्वरूपे स्थितो यः ।
सपदि विशति यत्तच्चिच्चमत्कारमात्रं
स भवति परमश्रीकामिनीकामरूपः ॥१७॥


यहाँ (इस गाथा में) उपयोग लक्षण को कहा है ।

आत्मा का चैतन्य-अनुवर्ती (चैतन्य का अनुसरण करके वर्तनेवाला) परिणाम सो उपयोग है । उपयोग धर्म है, जीव धर्मी है । दीपक और प्रकाश जैसा उनका सम्बन्ध है । ज्ञान और दर्शन के भेद से यह उपयोग दो प्रकार का है (अर्थात् उपयोग के दो प्रकार हैं : ज्ञानोपयोग और दर्शनोपयोग) । इनमें ज्ञानोपयोग भी स्वभाव और विभाव के भेद के कारण दो प्रकार का है (अर्थात् ज्ञानोपयोग के भी दो प्रकार हैं : स्वभाव-ज्ञानोपयोग और विभाव-ज्ञानोपयोग) । उनमें
  • स्वभाव-ज्ञान अमूर्त, अव्याबाध, अतीन्द्रिय और अविनाशी है; वह भी कार्य और कारणरूप से दो प्रकार का है (अर्थात् स्वभावज्ञान के भी दो प्रकार हैं : कार्य-स्वभावज्ञान और कारण-स्वभावज्ञान)
    • कार्य तो सकलविमल (सर्वथा निर्मल) केवलज्ञान है और
    • उसका कारण परम पारिणामिकभाव से स्थित त्रिकालनिरुपाधिक सहजज्ञान है ।
  • केवल विभावरूप ज्ञान तीन हैं: कुमति, कुश्रुत और विभङ्ग ।
इस उपयोग के भेदरूप ज्ञान के भेद, अब कहे जानेवाले दो सूत्रों द्वारा (११ और १२वीं गाथा द्वारा) जानना ।

(कलश--रोला)
जिनपति द्वारा कथित ज्ञान के भेद जानकर ।
परभावों को त्याग निजातम में रम जाते ॥
कर प्रवेश चित्चमत्कार में वे मुमुक्षुगण ।
अल्पकाल में पा जाते हैं मुक्ति-सुन्दरी ॥१७॥
जिनेन्द्र-कथित समस्त ज्ञान के भेदों को जानकर जो पुरुष पर-भावों का परिहार करके निज-स्वरूप में स्थित रहता हुआ शीघ्र चैतन्य-चमत्कार मात्र तत्त्व में प्रविष्ट हो जाता है (गहरा उतर जाता है), वह पुरुष परमश्रीरूपी कामिनी का वल्लभ होता है (अर्थात् मुक्ति-सुन्दरी का पति होता है )