पद्मप्रभमलधारिदेव : संस्कृत
अत्रोपयोगलक्षणमुक्तम् । आत्मनश्चैतन्यानुवर्ती परिणामः स उपयोगः । अयं धर्मः । जीवो धर्मी । अनयोःसम्बन्धः प्रदीपप्रकाशवत् । ज्ञानदर्शनविकल्पेनासौ द्विविधः । अत्र ज्ञानोपयोगोऽपि स्वभाव-विभावभेदाद् द्विविधो भवति । इह हि स्वभावज्ञानम् अमूर्तम् अव्याबाधम् अतीन्द्रियम्अविनश्वरम् । तच्च कार्यकारणरूपेण द्विविधं भवति । कार्यं तावत् सकलविमलकेवलज्ञानम् । तस्य कारणं परमपारिणामिकभावस्थितत्रिकालनिरुपाधिरूपं सहजज्ञानं स्यात् । केवलं विभाव-रूपाणि ज्ञानानि त्रीणि कुमतिकुश्रुतविभङ्गभाञ्जि भवन्ति । एतेषाम् उपयोगभेदानां ज्ञानानांभेदो वक्ष्यमाणसूत्रयोर्द्वयोर्बोद्धव्य इति । (कलश--मालिनी) अथ सकलजिनोक्त ज्ञानभेदं प्रबुद्ध्वा परिहृतपरभावः स्वस्वरूपे स्थितो यः । सपदि विशति यत्तच्चिच्चमत्कारमात्रं स भवति परमश्रीकामिनीकामरूपः ॥१७॥ यहाँ (इस गाथा में) उपयोग लक्षण को कहा है । आत्मा का चैतन्य-अनुवर्ती (चैतन्य का अनुसरण करके वर्तनेवाला) परिणाम सो उपयोग है । उपयोग धर्म है, जीव धर्मी है । दीपक और प्रकाश जैसा उनका सम्बन्ध है । ज्ञान और दर्शन के भेद से यह उपयोग दो प्रकार का है (अर्थात् उपयोग के दो प्रकार हैं : ज्ञानोपयोग और दर्शनोपयोग) । इनमें ज्ञानोपयोग भी स्वभाव और विभाव के भेद के कारण दो प्रकार का है (अर्थात् ज्ञानोपयोग के भी दो प्रकार हैं : स्वभाव-ज्ञानोपयोग और विभाव-ज्ञानोपयोग) । उनमें
(कलश--रोला)
जिनेन्द्र-कथित समस्त ज्ञान के भेदों को जानकर जो पुरुष पर-भावों का परिहार करके निज-स्वरूप में स्थित रहता हुआ शीघ्र चैतन्य-चमत्कार मात्र तत्त्व में प्रविष्ट हो जाता है (गहरा उतर जाता है), वह पुरुष परमश्रीरूपी कामिनी का वल्लभ होता है (अर्थात् मुक्ति-सुन्दरी का पति होता है ) ।
जिनपति द्वारा कथित ज्ञान के भेद जानकर । परभावों को त्याग निजातम में रम जाते ॥ कर प्रवेश चित्चमत्कार में वे मुमुक्षुगण । अल्पकाल में पा जाते हैं मुक्ति-सुन्दरी ॥१७॥ |