पद्मप्रभमलधारिदेव : संस्कृत
अत्र च ज्ञानभेदमुक्तम् । निरुपाधिस्वरूपत्वात् केवलम्, निरावरणस्वरूपत्वात् क्रमकरणव्यवधानापोढम्,अप्रतिवस्तुव्यापकत्वात् असहायम्, तत्कार्यस्वभावज्ञानं भवति । कारणज्ञानमपि ताद्रशं भवति । कुतः, निजपरमात्मस्थितसहजदर्शनसहजचारित्रसहजसुखसहजपरमचिच्छक्ति निज-कारणसमयसारस्वरूपाणि च युगपत् परिच्छेत्तुं समर्थत्वात् तथाविधमेव । इति शुद्ध-ज्ञानस्वरूपमुक्त म् ।इदानीं शुद्धाशुद्धज्ञानस्वरूपभेदस्त्वयमुच्यते । अनेकविकल्पसनाथं मतिज्ञानम् उप-लब्धिभावनोपयोगाच्च अवग्रहादिभेदाच्च बहुबहुविधादिभेदाद्वा । लब्धिभावनाभेदाच्छ्रुतज्ञानंद्विविधम् । देशसर्वपरमभेदादवधिज्ञानं त्रिविधम् । ऋजुविपुलमतिविकल्पान्मनःपर्ययज्ञानं चद्विविधम् । परमभावस्थितस्य सम्यग्द्रष्टेरेतत्संज्ञानचतुष्कं भवति । मतिश्रुतावधिज्ञानानिमिथ्याद्रष्टिं परिप्राप्य कुमतिकुश्रुतविभंगज्ञानानीति नामान्तराणि प्रपेदिरे । अत्र सहजज्ञानं शुद्धान्तस्तत्त्वपरमतत्त्वव्यापकत्वात् स्वरूपप्रत्यक्षम् । केवलज्ञानंसकलप्रत्यक्षम् । 'रूपिष्ववधेः' इति वचनादवधिज्ञानं विकलप्रत्यक्षम् । तदनन्तभागवस्त्वंश-ग्राहकत्वान्मनःपर्ययज्ञानं च विकलप्रत्यक्षम् । मतिश्रुतज्ञानद्वितयमपि परमार्थतः परोक्षंव्यवहारतः प्रत्यक्षं च भवति ।किं च उक्ते षु ज्ञानेषु साक्षान्मोक्षमूलमेकं निजपरमतत्त्वनिष्ठसहजज्ञानमेव । अपि चपारिणामिकभावस्वभावेन भव्यस्य परमस्वभावत्वात् सहजज्ञानादपरमुपादेयं न समस्ति ।अनेन सहजचिद्विलासरूपेण सदा सहजपरमवीतरागशर्मामृतेन अप्रतिहतनिरा-वरणपरमचिच्छक्ति रूपेण सदान्तर्मुखे स्वस्वरूपाविचलस्थितिरूपसहजपरमचारित्रेण त्रिकालेष्व-व्युच्छिन्नतया सदा सन्निहितपरमचिद्रूपश्रद्धानेन अनेन स्वभावानंतचतुष्टयेन सनाथम् अनाथमुक्ति सुन्दरीनाथम् आत्मानं भावयेत् ।इत्यनेनोपन्यासेन संसारव्रततिमूललवित्रेण ब्रह्मोपदेशः कृत इति । (कलश--मालिनी) निगदितभेदज्ञानमासाद्य भव्यः परिहरतु समस्तं घोरसंसारमूलम् । सुकृतमसुकृतं वा दुःखमुच्चैः सुखं वा तत उपरि समग्रं शाश्वतं शं प्रयाति ॥१८॥ (कलश--अनुष्टुभ्) परिग्रहाग्रहं मुक्त्वा कृत्वोपेक्षां च विग्रहे । निर्व्यग्रप्रायचिन्मात्रविग्रहं भावयेद् बुधः ॥१९॥ (कलश--शार्दूलविक्रीडित) शस्ताशस्तसमस्तरागविलयान्मोहस्य निर्मूलनाद् द्वेषाम्भःपरिपूर्णमानसघटप्रध्वंसनात् पावनम् । ज्ञानज्योतिरनुत्तमं निरुपधि प्रव्यक्ति नित्योदितं भेदज्ञानमहीजसत्फ लमिदं वन्द्यं जगन्मंगलम् ॥२०॥ (कलश--मन्दाक्रान्ता) मोक्षे मोक्षे जयति सहजज्ञानमानन्दतानं निर्व्याबाधं स्फु टितसहजावस्थमन्तर्मुखं च । लीनं स्वस्मिन्सहजविलसच्चिच्चमत्कारमात्रे स्वस्य ज्योतिःप्रतिहततमोवृत्ति नित्याभिरामम् ॥२१॥ (कलश--अनुष्टुभ्) सहजज्ञानसाम्राज्यसर्वस्वं शुद्धचिन्मयम् । ममात्मानमयं ज्ञात्वा निर्विकल्पो भवाम्यहम् ॥२२॥ यहाँ (इन गाथाओं में) ज्ञान के भेद कहे हैं । जो उपाधि रहित स्वरूपवाला होने से केवल है, आवरण रहित स्वरूपवाला होने से क्रम और करण के व्यवधान रहित है, एक-एक वस्तु में व्याप्त नहीं होता (समस्त वस्तुओं में व्याप्त होता है ) इसलिये असहाय है, वह कार्य-स्वभाव-ज्ञान है । कारण-ज्ञान भी वैसा ही है । काहे से ? निज परमात्मा में विद्यमान सहज-दर्शन, सहज-चारित्र, सहज-सुख और सहज-परम-चित्शक्तिरूप निज कारण-समयसार के स्वरूपों को युगपद् जानने में समर्थ होने से वैसा ही है । इस प्रकार शुद्ध ज्ञान का स्वरूप कहा । अब यह (निम्नानुसार), शुद्धाशुद्ध ज्ञान का स्वरूप और भेद कहे जाते हैं :
(कलश--रोला)
इसप्रकार कहे गये भेदज्ञान को पाकर भव्य जीव घोर संसार के मूलरूप समस्त सुकृत या दुष्कृत को, सुख या दुःख को अत्यन्त परिहरो । उससे ऊपर (अर्थात् उसे पार कर लेने पर), जीव समग्र (परिपूर्ण) शाश्वत सुख को प्राप्त करता है ।इसप्रकार का भेदज्ञान पाकर जो भविजन । भवसागर के मूलरूप जो सुक्ख-दुक्ख हैं ॥ सुकृत-दुष्कृत होते जो उनके भी कारण । उन्हें छोड़ वे शाश्वत सुख को पा जाते हैं ॥१८॥ (कलश--दोहा)
परिग्रह का ग्रहण छोड़कर तथा शरीर के प्रति उपेक्षा करके बुध-पुरुष को अव्यग्रता से (निराकुलता से) भरा हुआ चैतन्य मात्र जिसका शरीर है उसे (आत्मा को) भाना चाहिये ।करो उपेक्षा देह की परिग्रह का परिहार । अव्याकुल चैतन्य को भावो भव्य विचार ॥१९॥ (कलश--रोला)
मोह को निर्मूल करने से, प्रशस्त-अप्रशस्त समस्त राग का विलय करने से तथा द्वेषरूपी जल से भरे हुए मनरूपी घड़े का नाश करने से, पवित्र अनुत्तम, निरुपधि और नित्य-उदित (सदा प्रकाशमान) ऐसी ज्ञान-ज्योति प्रगट होती है । भेदों के ज्ञानरूपी वृक्ष का यह सत्फल वंद्य है, जगत को मंगलरूप है ।यदि मोह का निर्मूलन अर विलय द्वेष का । और शुभाशुभ रागभाव का प्रलय हो गया ॥ तो पावन अतिश्रेष्ठज्ञान की ज्योति उदित हो । भेदज्ञानरूपी तरु का यह फल मंगलमय ॥२०॥ (कलश--रोला)
आनन्द में जिसका फैलाव है, जो अव्याबाध (बाधा रहित) है, जिसकी सहज दशा विकसित हो गई है, जो अन्तर्मुख है, जो अपने में - सहज विलसते (खेलते, परिणमते) चित्चमत्कारमात्र में लीन है, जिसने निज ज्योति से तमोवृत्ति (अन्धकार-दशा, अज्ञान-परिणति) को नष्ट किया है और जो नित्य अभिराम (सदा सुन्दर) है, ऐसा सहज-ज्ञान सम्पूर्ण मोक्ष में जयवन्त वर्तता है ।जिसकी विकसित सहजदशा अंतर्मुख जिसने । तमोवृत्ति को नष्ट किया है निज ज्योति से ॥ सहजभाव से लीन रहे चित् चमत्कार में । सहजज्ञान जयवंत रहे सम्पूर्ण मोक्ष में ॥२१॥ (कलश--सोरठा)
सहजज्ञानरूपी साम्राज्य जिसका सर्वस्व है ऐसा शुद्ध चैतन्यमय अपने आत्मा को जानकर, मैं यह निर्विकल्प होऊँ ।
सहजज्ञान सर्वस्व शुद्ध चिदातम आतमा । उसे जान अविलम्ब निर्विकल्प मैं हो रहा ॥२२॥ |