+ दर्शनोपयोग -
तह दंसणउवओगो ससहावेदरवियप्पदो दुविहो ।
केवलमिंदियरहियं असहायं तं सहावमिदि भणिदं ॥13॥
तथा दर्शनोपयोगः स्वस्वभावेतरविकल्पतो द्विविधः ।
केवलमिन्द्रियरहितं असहायं तत् स्वभाव इति भणितः ॥१३॥
दर्शनपयोग स्वभाव और विभाव दो विधि जानिये ।
इन्द्रिय-रहित, असहाय, केवल दृग्स्वभाविक मानिये ॥१३॥
अन्वयार्थ : [तथा] उसीप्रकार [दर्शनोपयोगः] दर्शनोपयोग [स्वस्वभावेतरविकल्पतः] स्वभाव और विभाव के भेद से [द्विविधः] दो प्रकार का है । [केवलम्] जो केवल, [इन्द्रियरहितम्] इन्द्रिय-रहित और [असहायं] असहाय है, [तत्] वह [स्वभावः इति भणितः] स्वभाव दर्शनोपयोग कहा है ।
Meaning : And conation attentiveness (is) of two kinds (i. e.,) natural (Svabhava Darshana), and the opposite of its kind, non-natural (Vibhava Darshana). That, which is perfect, unassisted by senses and independenti, is called Natural

  पद्मप्रभमलधारिदेव 

पद्मप्रभमलधारिदेव : संस्कृत
दर्शनोपयोगस्वरूपाख्यानमेतत् ।

यथा ज्ञानोपयोगो बहुविधविकल्पसनाथः दर्शनोपयोगश्च तथा । स्वभावदर्शनोपयोगोविभावदर्शनोपयोगश्च । स्वभावोऽपि द्विविधः, कारणस्वभावः कार्यस्वभावश्चेति । तत्र कारण-द्रष्टिः सदा पावनरूपस्य औदयिकादिचतुर्णां विभावस्वभावपरभावानामगोचरस्य सहजपरमपारिणामिकभावस्वभावस्य कारणसमयसारस्वरूपस्य निरावरणस्वभावस्य स्वस्वभावसत्तामात्रस्य परमचैतन्यसामान्यस्वरूपस्य अकृत्रिमपरमस्वस्वरूपाविचलस्थितिसनाथशुद्धचारित्रस्य नित्यशुद्ध-निरंजनबोधस्य निखिलदुरघवीरवैरिसेनावैजयन्तीविध्वंसकारणस्य तस्य खलु स्वरूप-श्रद्धानमात्रमेव ।अन्या कार्यद्रष्टिः दर्शनज्ञानावरणीयप्रमुखघातिकर्मक्षयेण जातैव । अस्य खलुक्षायिकजीवस्य सकलविमलकेवलावबोधबुद्धभुवनत्रयस्य स्वात्मोत्थपरमवीतरागसुखसुधा-समुद्रस्य यथाख्याताभिधानकार्यशुद्धचारित्रस्य साद्यनिधनामूर्तातींद्रियस्वभावशुद्धसद्भूतव्यवहार-नयात्मकस्य त्रैलोक्यभव्यजनताप्रत्यक्षवंदनायोग्यस्य तीर्थकरपरमदेवस्य केवलज्ञानवदियमपि युगपल्लोकालोकव्यापिनी इति कार्यकारणरूपेण स्वभावदर्शनोपयोगः प्रोक्त : । विभावदर्शनोपयोगोऽप्युत्तर-सूत्रस्थितत्वात् तत्रैव द्रश्यत इति ।

(कलश-इन्द्रवज्रा)
द्रग्ज्ञप्तिवृत्त्यात्मकमेकमेवचैतन्यसामान्यनिजात्मतत्त्वम् ।
मुक्ति स्पृहाणामयनं तदुच्चैरेतेन मार्गेण विना न मोक्षः ॥२३॥


यह, दर्शनोपयोगके स्वरूपका कथन है ।

जिसप्रकार ज्ञानोपयोग बहुविध भेदोंवाला है, उसीप्रकार दर्शनोपयोग भी वैसा है । (वहाँ प्रथम, उसके दो भेद हैं :)
  • स्वभाव-दर्शनोपयोग और
  • विभाव-दर्शनोपयोग ।
स्वभाव-दर्शनोपयोग भी दो प्रकार का है :
  • कारण-स्वभाव-दर्शनोपयोग और
  • कार्य-स्वभाव-दर्शनोपयोग ।
वहाँ
  • कारणदृष्टि तो,
    • सदा पावनरूप और औदयिकादि चार विभाव-स्वभाव पर-भावों को अगोचर ऐसा सहज-परमपारिणामिक-भावरूप जिसका स्वभाव है,
    • जो कारण-समयसार-स्वरूप है,
    • निरावरण जिसका स्वभाव है,
    • जो निज स्वभाव-सत्तामात्र है,
    • जो परम-चैतन्य-सामान्य-स्वरूप है,
    • जो अकृत्रिम परम स्व-स्वरूप में अविचल-स्थितिमय शुद्ध-चारित्र-स्वरूप है,
    • जो नित्य-शुद्ध-निरंजन ज्ञान-स्वरूप है और
    • जो समस्त दुष्ट पापोंरूप वीर शत्रुओं की सेना की ध्वजा के नाश का कारण है
    ऐसे आत्मा के सचमुच स्वरूप-श्रद्धानमात्र ही है (अर्थात् कारणदृष्टि तो वास्तव में शुद्धात्मा की स्वरूप-श्रद्धामात्र ही है )
  • दूसरी कार्यदृष्टि दर्शनावरणीय-ज्ञानावरणीयादि घातिकर्मों के क्षय से उत्पन्न होती है । इस क्षायिक जीव को, जिसने
    • सकल-विमल (सर्वथा निर्मल) केवलज्ञान द्वारा तीन भुवन को जाना है,
    • निज आत्मा से उत्पन्न होनेवाले परम वीतराग सुखामृत का जो समुद्र है,
    • जो यथाख्यात नामक कार्य-शुद्ध-चारित्र-स्वरूप है,
    • जो सादि-अनन्त अमूर्त अतीन्द्रिय-स्वभाववाले शुद्ध-सद्भूत-व्यवहार-नयात्मक है, और
    • जो त्रिलोक के भव्य जनों को प्रत्यक्ष वन्दनायोग्य है,
    ऐसे तीर्थंकर परमदेव को, केवलज्ञान की भाँति यह (कार्य-दृष्टि) भी युगपत् लोकालोक में व्याप्त होनेवाली है ।
इसप्रकार कार्यरूप और कारणरूप से स्वभाव-दर्शनोपयोग कहा । विभाव-दर्शनोपयोग अगले सूत्र में (१४वीं गाथा में) होने से वहीं दर्शाया जायेगा ।

(कलश-दोहा)
दर्शनज्ञानचरित्रमय चित् सामान्यस्वरूप ।
मार्ग मुमुक्षुओं के लिए अन्य न कोई स्वरूप ॥२३॥
दृशि-ज्ञप्ति-वृत्ति-स्वरूप (दर्शन-ज्ञान-चारित्ररूप से परिणमित) ऐसा जो एक ही चैतन्य-सामान्यरूप निज आत्म-तत्त्व, वह मोक्षेच्छुओं को (मोक्ष का) प्रसिद्ध मार्ग है; इस मार्ग बिना मोक्ष नहीं है ।